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    विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 59

    ["प्रिये , न सुख में और न दुःख में ,  बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो . "]


    किन्हीं भी ध्रुवों को , विपरीतताओं को चुनो और उनके मध्य में स्थिर होने की चेष्टा करो . इस मध्य में होने के लिए तुम क्या करोगे ? मध्य में कैसे होओगे ?
        एक बात कि जब दुःख में होते हो तो क्या करते हो ? जब दुःख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो . तुम दुःख नहीं चाहते हो ; तुम उससे भागना चाहते हो . तुम्हारी चेष्टा रहती है कि तुम उससे विपरीत को पा लो , सुख को पा लो . और जब सुख आता है तो तुम क्या करते हो ? तुम चेष्टा करते हो कि सुख बना रहे , ताकि दुःख न आ जाए ; तुम उससे चिपके रहना चाहते हो . तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुःख से बचना चाहते हो . यही स्वाभाविक दृष्टिकोण है , ढंग है . अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो , उसके पार जाना चाहते हो , तो जब दुःख आये तो उससे भागने की चेष्टा मत करो ; उसके साथ रहो , उसको भोगो . ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर दोगे . तुम्हें सिरदर्द है ; उसके साथ रहो . आंखे बंद कर लो और सिरदर्द पर ध्यान करो , उसके साथ रहो . कुछ भी मत करो ; बस साक्षी रहो . उससे भागने की चेष्टा मत करो . और जब सुख आये और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो उसे पकड़कर उससे चिपको मत . आंखें बंद कर लो और उसके साक्षी हो जाओ .
          सुख को पकड़ना और दुःख से भागना धूल-भरे चित्त के स्वाभाविक गुण हैं . और अगर तुम साक्षी रह सको तो देर-अबेर तुम मध्य को उपलब्ध हो जाओगे . प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते-जाते रहो . अगर तुम साक्षी रह सको तो तुम मध्य में होगे .


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