सिद्धार्थ उपनिषद Page 28
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मंगल तत्व धर्म का उत्कर्ष है. इसमें सत्, चित्, आनंद और प्रेम चारों समाहित हैं -
'धम्मो मंगलमुक्किठम, अहिंसा, संयमों, तवो.
देवा वि सं नमं सन्ति, यस्स धम्मो सयामणो ..'
अर्थात धर्म मंगलमय है. इस प्रतीत के बाद जीवन में अहिंसा, संयम एवं तप का उदय होता है.ऐसे व्यक्ति को देवता भी नमस्कार करते हैं. गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहा करते थे कि जो भी सामने आए उसकी मंगलकामना करो और वही करो जो बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो. डा.हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने प्रसिद्द ग्रन्थ 'बाणभट्ट की आत्मकथा में कहते हैं -'सारी विसंगतियों के बावजूद अस्तित्व हमें मंगलमय दिशा में ले जाने के लिए कृत संकल्प है.' गीता कहती है -'जो हुआ अच्छा हुआ. जो हो रहा है अच्छा है. जो होगा अच्छा होगा.'जिस दिन इस एहसास से हम भर जाते हैं, जीवन मंगलमय हो जाता है.
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ओशो ने नए मनुष्य की संकल्पना 'जोरबा दि बुद्धा'के रूप में की है. बुद्धा का अर्थ है आनंदमय जीवन. जोरबा का अर्थ है एश्वर्यमय जीवन. जोरबा दि बुद्धा का आधार है सत्-चित्-आनंद और उसका शिखर है सत्यम-शिवम-सुन्दरम. सत्-चित्-आनंद हिमालय की तरह है, सत्यम-शिवम-सुन्दरम गंगा की तरह है. सत्-चित्-आनंद उदगम की तरह है, सत्यम-शिवम-सुन्दरम नदी की तरह है.
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संतों का जीवन एक वृक्ष की तरह है. उसकी जड़ सत्-चित्-आनंद है. उसका धड़ सत्यम-शिवम-सुन्दरम है.