• Recent

    सिद्धार्थ उपनिषद Page 20


                             

    सिद्धार्थ उपनिषद Page 20


    (90)


    काम और प्रेम के योग से जीवन निर्मित है. दूसरे शब्दों में जीवन काम और प्रेम का isomorphus series है. प्रभु के प्रति जितना प्रेम होगा, जीवन में काम, अपेक्षा, फलाकांक्षा, शिकायत भाव, क्रोध उतना ही कम होगा. हमारा चित्त संसार की कामनाओं से जितना भरा होगा, प्रभु के प्रति हमारा प्रेम, हमारा सुमिरन उतना ही कम होगा.

    (91)


    ज्ञान तो पूरा गुरु (कामिल मुर्शिद, देहधारी गुरु, जीवित गुरु) के बिना भी अपवाद स्वरुप किसी-किसी को हो जाता है,लेकिन भक्ति का स्वाद बिना पूरा गुरु के नहीं मिलता. भगवान दत्तात्रेय, अष्टावक्र, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, महर्षि पतंजलि, महर्षि रमण, जे.कृष्णमूर्ति इसी कोटि में आते हैं. हमारे परमगुरु ओशो स्वयं कहते हैं कि वे भक्त नहीं हो सकते. वे हमें समझाते हैं -'ज्ञान का मार्ग रेगिस्तान जैसा है. भक्ति का मार्ग सरस है, हरी-भरी वादियों के बीच से है. तुम भक्ति के मार्ग पर चलना. मुझे कोई कहने वाला नहीं था. लेकिन मैं तुम्हें समझा रहा हूं. तुम यह गलती मत करना.' मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि ज्ञानमार्ग सम्बोधि तक तो ले जा सकता है, लेकिन उसके आगे परमपद तक नहीं ले जा सकता. इसलिए ओशोधारा में हमने सहज भक्ति योग का मार्ग चुना है. स्वामी रामानंद, कबीर साहब, नानकदेव जी इसे ही शब्द सुरत योग  कहते हैं.

    (92)


    ध्यान और प्रेम दो अलग-अलग मार्ग नहीं हैं. दोनों एक दूसरे के -पूरक हैं. ध्यान आत्मा तक ले जाता है, परमात्मा तक नहीं. प्रेम परमात्मा तक ले जाता है, आत्मा तक नहीं. ध्यान से शान्ति मिलती है, आनंद नहीं. प्रेम से आनंद मिलता है, शान्ति नहीं. ध्यान की मंजिल ज्ञान है, भक्ति नहीं. प्रेम की मंजिल भक्ति है, ज्ञान नहीं. ध्यान और प्रेम दोनों को युगपत जिए बिना आध्यात्म में पूर्णता नहीं मिलती, परम पद नहीं मिलता.


    Page    -    1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 
    21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 
    41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 
    61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 
    81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 
    116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 
    131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 
    161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 
    176 177 178 179 180